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सोमवार, 27 जुलाई 2015

कुछ भी, कहीं भी, कैसे भी...बन ही गई आज की नौवीं प्रस्तुति

सादर अभिवादन स्वीकारें...

कहीं किसी के स्टेटस में पढ़ी..ये ऐसा कुछ..


सुन दोस्त.....
इश्क कर ,
धोखा खा 
और 
शायर बन जा ....

देखिए आज की प्रस्तुति....


कितना भी दफन 
कर ले कोई जमीन 
के नीचे गहराई में 
बस मिट्टी को हाथों 
से खोदने में 
शर्माना नहीं चाहिये ।


हंसती हुई आँखों में जो प्यार का पहरा रहता है-
असल में उन आँखों के ज़ख्म गहरे होते है ||

जलती हुई लौ भी जो उजारा करे मजारों को-
सुना है उन मजारों को बड़ी तकलीफ होती है ||


लगातार छः ग़ज़लें
बहुत   तन्हा   हूँ   मैं  ये   वक्त  कह   गया   हमसे।
पाल    बैठा    बड़ी    उम्मीद     बेवफा    तुमसे ।।


कुछ भी, कहीं भी, कैसे भी
उड़ कर पहुँच जाती हो तुम !!
भूतनी! भूतनी !! भूतनी !!
चिढ़ती रहो ........
मेरी तो कविता बन गयी न !!


मुक्ति कोई क्षणिक बात नहीं है. 
वह एक जीवन अनुभव होती है 
और उसे बार–बार अनुभव करना पड़ता है.
जिन्हें मुक्त होने की इच्छा है 
या जो मुक्त होना चाहते है


आज्ञा दीजिये यशोदा को...
चलते-चलते ये गीत सुनिए....





















7 टिप्‍पणियां:

  1. सुंदर अंक । आभार यशोदा जी 'उलूक' के सूत्र 'किया कराया दिख जाता है
    बस देखने वाली आँखों को खोलना आना चाहिये' को आज के पाँच सूत्रों में स्थान देने के लिये ।

    जवाब देंहटाएं
  2. गाना बहुत अच्छा लगा |उम्दा लिंक्स |

    जवाब देंहटाएं

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